आज होगी श्री लक्ष्मी नारायण महायज्ञ की भव्य जल यात्रा – परमानपुर में श्री लक्ष्मी नारायण महायज्ञ जल यात्रा की भव्य तैयारी की गई है। आज दिन बुधवार को परमानपुर चातुर्मास्य व्रत स्थल पूरी तरीके से सज धज कर तैयार है। भारत के महान संत श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज के मंगलानुशासन में आज परमानपुर यज्ञ स्थल से बहरी महादेव के लिए भव्य जल यात्रा निकाली जाएगी। महायज्ञ की जल यात्रा में शामिल होना, हजारों तीर्थों के पुण्य के समान होता है। क्योंकि शास्त्रों में बताया गया है, श्री लक्ष्मी नारायण महायज्ञ में 33 कोटी देवी देवताओं की पूजा अर्चना की जाती है।
इसीलिए सभी धर्म अनुरागी सज्जन जल यात्रा में शामिल होकर पुण्य का भागी जरूर बने। श्री जीयर स्वामी जी महाराज के तत्वाधान में होने वाले इस महायज्ञ के आयोजन में नि:शुल्क जल यात्रा में शामिल होने की व्यवस्था, यजमान बनने की व्यवस्था, एवं 1 से 7 अक्टूबर तक नि:शुल्क भोजन, प्रसाद, पानी की भी व्यवस्था की गई है। जिसमें सभी धर्म अनुरागी सज्जन शामिल हो सकते हैं। जो भारतीय संस्कृति और वैदिक परंपरा में श्रद्धा और विश्वास रखते हैं, वे इस महायज्ञ में बिना किसी खर्च के आप करोड़ों करोड़ देवी देवताओं की आराधना पूजा में शामिल हो सकते हैं। जिसके लिए घर पर बहुत खर्च करके विशेष तैयारी करना पड़ता है।
आज होगी श्री लक्ष्मी नारायण महायज्ञ की भव्य जल यात्रा
लेकिन इस महायज्ञ में स्वामी जी के द्वारा नि:शुल्क जल यात्रा में शामिल होने की व्यवस्था की गई है। जिसमें केवल आपको अपने लिए कलश की व्यवस्था करनी है। बस एकमात्र शुल्क इस महायज्ञ में शामिल होने के लिए यही है कि आपके अंदर जो भी कमियां खामियां हैं, चाहे वह भोजन में हो, आहार, व्यवहार में हो उसको पूरी जीवन के लिए त्याग कर दें। यही एकमात्र शुल्क आप समझ सकते हैं।
इस महायज्ञ में शामिल होने वाले सभी लोगों से एकमात्र निवेदन है, पूरे यज्ञ शुद्ध सात्विक भोजन करके शुद्ध वस्त्र को पहन करके यज्ञ में कथा श्रवण का लाभ प्राप्त करें। किसी भी प्रकार का सोना, चांदी, कीमती समान पहन कर के या लेकर के यज्ञ में नहीं आना है। जरूरी जो भी कुछ कपड़ा इत्यादि हो या गाड़ी भाड़ा के लिए कुछ जरूरी पैसा अपने पास रखें। क्योंकि सोना चांदी कीमती सामान कहीं इधर-उधर होने की संभावना रहती है। इसीलिए अपने कीमती सामान को लेकर न आवें।

आज ही से श्रीमद् भागवत, श्रीमद् भागवत गीता, वाल्मीकि रामायण, श्री रामचरितमानस की कथा प्रारंभ होगी। इसीलिए जो भी लोग सातों दिन तक सप्ताह के रूप में कथा सुनना चाहते हैं। वे सभी लोग रक्षा सूत्र बंधवा करके संकल्प करके प्रवचन पंडाल में शुद्ध सात्विक भोजन करके सुबह 9:00 बजे से लगभग रात्रि के 6:00 बजे तक कथा श्रवण करने का लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
संत महात्माओं का अनादर करने पर अनर्थ होता हैं
श्रीमद् भागवत कथा अंतर्गत भगवान श्री कृष्ण के भी परिवार में कुछ गलत आचरण करने वाले लोग हुए थे। जिनको समझाने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने बहुत प्रयास किया। लेकिन उनके परिवार के अगली पीढ़ी के लोग नहीं समझ पा रहे थे। जिस प्रकार से घर में पिता, बाबा, दादा के बातों पर ज्यादा बच्चे ध्यान नहीं देते हैं। कहते हैं कि बाबा अब बूढ़े हो गए हैं। उनका दिमाग उतना काम नहीं कर रहा है। उसी प्रकार से भगवान श्री कृष्ण जो मर्यादा को स्थापित करने के लिए कृपा के लिए अवतरित हुए थे और उन्हीं के घर में जो लोग हुए, वह संत महात्माओं का अनादर करते थे।
भगवान श्री कृष्ण ने लगातार समझाया। लेकिन फिर भी वे लोग मानने के लिए तैयार नहीं हुए। श्री कृष्ण जी समझ गए थे कि यह लोग गलत रास्ते पर चल रहे हैं। उन्होंने कहा कि देखिए हम साक्षात परम ब्रह्म परमेश्वर हैं, लेकिन आप लोग यदि संत महात्मा का अनादर करेंगे, अपना आचरण गलत रखेंगे तो उसका दंड आप सभी लोगों को भोगना पड़ेगा। उस समय हम कुछ नहीं कर पाएंगे। वही एक बार हस्तिनापुर में यज्ञ का आयोजन किया गया। जिसमें दुर्योधन को बड़ी जिम्मेदारी दी गई। शास्त्रों में भी बताया गया है कि जो अधार्मिक प्रवृति के लोग होते हैं, उन्हें कुछ न कुछ जरूर जिम्मेदारी देना चाहिए।
संत महात्माओं का सम्मान करना जरूरी
भगवान श्री कृष्ण के एक पुत्र शाम हुए थे। जो साक्षात शंकर जी और पार्वती जी के पुत्र के रूप में जन्म लिए थे। एक बार शंकर जी और पार्वती जी में विवाद हुआ। दोनों आपस में कहने लगे कि हम भगवान श्री कृष्ण के पुत्र में जन्म लेना चाहते हैं। तब दोनों लोग विचार किए कि हम लोग अंश के रूप में भगवान श्री कृष्ण के पुत्र के रूप में शाम बनकर जन्म लेंगे। वही शाम थोड़ा हठीले स्वभाव के थे। वे संत महात्माओं का ज्यादा सम्मान नहीं करते थे।
एक बार कृष्ण भगवान अपने सभी पुत्रों को लेकर के जंगल में गए थे। जहां पर स्वयं एक पेड़ के नीचे बैठ गए और अपने पुत्रों को बोले कि आप लोग जंगल में सैर कीजिए। वही एक छोटे से कुआं में एक गिरगिट गिरा हुआ था। कृष्ण भगवान के पुत्र लोग प्रयास करने लगे कि उस गिरगिट को किसी प्रकार से निकाला जाए। लेकिन बहुत प्रयास करने के बाद भी वेलोग निकाल नहीं पाए। तब कृष्ण भगवान से आकर इस बात को बताए। कृष्ण जी गए और हाथ थोड़ा सा नीचे किए, तब तक गिरगिट जो है हाथों से निकाल कर के ऊपर की तरफ आ गया। वहीं गिरगिट का स्वरूप जो है एक दिव्य पुरुष के रूप में हुआ।
राजा नृग को मिला श्राप
भगवान श्री कृष्ण पूछे कि आप कौन है। वह महात्मा बोले कि हम एक राजा थे। मेरा नाम राजा नृग हैं एक बार हम बहुत गायों को दान कर रहे थे। एक गाय को हम एक ब्राह्मण को दान दिए। वह गाय दूसरे ब्राह्मण की थी। जिस ब्राह्मण की गाय थी, वह रास्ते में देख लिए। जिसके बाद वह ब्राह्मण कहने लगे कि यह मेरी गाय हैं। तुम कहां लेकर के आ रहे हो। फिर दोनों ब्राह्मण वापस मेरे पास आए। जिस ब्राह्मण की गाय थी। उन्होंने कहा कि मेरी अनुमति लिए बिना, आपने मेरी गाय दान कैसे कर दिए। फिर दोनो में आपस में विवाद हो गया।
फिर हमने जिसको गाय दान दिया था, उनसे बोले कि आप यह गाय छोड़ दीजिए। दूसरी गाय हम आपको दान कर देते हैं। लेकिन उन्होंने मना कर दिया। जिसके बाद जिस ब्राह्मण की गाय थी, उनसे हमने कहा कि आप दूसरी गाय जितना लेना हैं, उतना ले जाइए। लेकिन वह ब्राह्मण क्रोधित हो गए। क्रोधित होकर श्राप दिए कि जाओ मर करके गिरगिट बन जाना। वही हम गिरगिट बन गए थे। हम आपके वंशज हैं। वही भगवान श्री कृष्ण अपने पुत्रों को बताना चाहते थे। देखो किस प्रकार से गलत आचरण करने का परिणाम भोगना पड़ता है। इस प्रकार से अपने पुत्रों को भगवान श्री कृष्ण ने उपदेश दिया।
श्री कृष्ण और सुदामा जी की मित्रता
वहीं आगे शुकदेव जी राजा परीक्षित से कहते हैं। राजा परीक्षित भगवान श्री कृष्ण के एक मित्र सुदामा जी थे। वह एक गरीब ब्राह्मण थे। उनका जीवन बहुत ही संघर्ष भरा था। एक दिन भगवान श्री कृष्ण सुदामा के घर गए। भगवान श्री कृष्ण को याद आया की बचपन का मित्र सुदामा का क्या हाल-चाल है। चल करके पता किया जाए। वही अपना भेष बदल करके सुदामा के द्वार पर गए। उनकी पत्नी से कहा कि कुछ भिक्षा दीजिए।
सुदामा जी की पत्नी सुशीला ने कहा कि हम लोग दरिद्र की अवस्था हैं। मेरे घर में कुछ नहीं है। वही भगवान श्री कृष्ण सुदामा की पत्नी से कहा कि आप अपने पति से कहिएगा कि आपके बचपन के मित्र श्री कृष्ण है, उनको कभी आप याद नहीं करते हैं। वही सुदामा जी जब घर पर वापस लौट कर आए तो उनकी पत्नी सुशीला ने उनको इस बात की जानकारी दी। सुशीला ने कहा कि आप एक बार भगवान श्री कृष्ण के घर जाइए।
वहीं सुदामा जी द्वारिका पुरी आते हैं। श्री कृष्ण जी उनका स्वयं स्वागत करने के लिए निकल पड़ते हैं। जिसके बाद सुदामा जी का भव्य स्वागत द्वारकापुरी में होता है। सुदामा जी कृष्ण जी से पूछते हैं, क्या समाचार है। इस प्रकार से दोनों लोगों में आपस में बातें होती है। कृष्ण कहते हैं, सुदामा जी क्या आपने विवाह किया है। वही सुदामा जी अपने पत्नी के बारे में जानकारी देते हैं। जिसके बाद सुदामा जी भगवान श्री कृष्ण से पूछते हैं कि क्या आपने विवाह किया है। कृष्ण जी ने कहा मत पूछिए, हमने इतना विवाह किया है कि आप गिनते गिनते थक जाएंगे।
सुदामा जी गए द्वारिका पूरी
वहीं कृष्ण जी अपनी पत्नियों को बारी-बारी से बुलाते हैं। रुक्मणी जी, सत्यभामा, जामवंती इत्यादि पटरानियां बारी-बारी से आती हैं। सुदामा जी आशीर्वाद देते। सुदामा जी कहते है श्री कृष्ण तुम्हारी कितनी पत्नियां हैं। ऐसा करो तुम्हारी सारी पत्नियों को आशीर्वाद तुम ही प्राप्त कर लो। वही कृष्ण जी सुदामा जी से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण की 16108 रानियां थी। वहीं कृष्ण जी कहते हैं, सुदामा क्या भाभी ने मेरे लिए कुछ दिया है। सुदामा जी घर से मुट्ठी चावल लेकर आए थे। वहीं चावल भगवान श्री कृष्ण ले लेते हैं।
इसके बाद एक मुट्ठी चावल प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। फिर दूसरा मुट्ठी चावल श्री कृष्ण जी खाते हैं। तीसरा मुट्ठी डालने ही वाले होते हैं तब तक रुक्मणी जी ने आकर के भगवान श्री कृष्ण को रोक दिया। उन्होंने कहा कि दो मुट्ठी चावल में तो आपने दो लोक दे दिया, अब तीसरा मुट्ठी चावल भी देकर के क्या आप भिखारी बनना चाहते हैं। इधर सुदामा जी का घर भव्य तरीके से बन कर तैयार हो गया था। घर में नौकर, चाकर, धन, संपत्ति से सुसज्जित हो गया। सुदामा जी वहां से विदा लेते हैं। रास्ते में सोचते हुए आ रहे थे। कृष्ण भगवान का महल बहुत ही सुंदर है। द्वारका पुरी बहुत ही अच्छा है। सुदामा जी अपने सुदामा नगरी पहुंचते हैं। जहां उनका घर झोपड़ी था, वहां पर महल हो गया था।
भगवान भक्त को भक्ति का फल जरूर देते है
वह अपने घर को पहचान नहीं पा रहे थे। लोगों से पूछ रहे थे कि यहां पर सुदामा का घर था। वहीं लोगों ने बताया कि यह सुदामा का ही घर है। सुदामा जी द्वारकापुरी अपने मित्र श्री कृष्ण से मिलने के लिए गए थे तब मन में विचार करते थे कि सुदामा तो हम ही हैं। तब तक उनकी पत्नी सुशीला भी महल से बाहर निकाल कर देखती है। कहती है महाराज आप श्री कृष्ण जी के मिलकर आ गए।
अब सुदामा जी अपनी पत्नी को पहचान ही नहीं पाए। सुदामा जी कहते हैं कि नहीं नहीं मुझे धन, संपत्ति, घर, महल नहीं चाहिए। हम भगवान की भक्ति प्राप्त करना चाहते हैं। वह वहां से वह बाहर निकल जाते हैं। तब तक भगवान श्री कृष्णा वहीं प्रकट हो जाते हैं। श्री कृष्ण ने कहा सुदामा धन, संपत्ति, घर, यस किर्ती बढ़ाना कोई गलत बात नहीं हैं। घर परिवार धन संपत्ति रहते हुए इसे अपना नहीं मानना यही सबसे बड़ा धर्म है।
आप इसे अपना मत मानिए। यह भगवान का दिया हुआ मानकर आप भक्ति पूर्वक इस घर में वास कीजिए। वही इस बात को संदेश देकर के श्री कृष्ण जी फिर से वहां से निकल जाते हैं।
जरासंध का ब्राह्मणों के प्रति आदर का भाव
इधर जरासंध अपने राज्य में कई राजाओं को बंदी बनाकर के रखा था। भगवान श्री कृष्ण उन राजाओं को बंदीगृह से मुक्त कराने के लिए अर्जुन, भीम के साथ ब्राह्मण का रूप बनाकर के मगध राज्य में पहुंचते हैं। भगवान श्री कृष्ण जी भिक्षा मांगते हैं। जरासंध कहता है कि हम ब्राह्मणों को जरूर दान करते हैं। मांगिए आप क्या मांगना चाहते हैं, जरूर देंगे। ऐसा वचन उसने दे दिया। जिसके बाद भगवान श्री कृष्ण ने अपना स्वरूप दिखाए। अर्जुन और भीम अपने स्वरूप में हो गए। जरासंध ने कहा कि मेरे साथ धोखा हुआ है।
श्री कृष्ण को भगाने के लिए हम ब्राह्मणों के प्रति आदर का भाव रखते हैं। एक बार फिर तुम आ गए। भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि हां हम आ गए हैं और तुमको मेरे साथ युद्ध करना पड़ेगा। जरासंध ने कहा कि हम रनछोड़, भगोड़े से युद्ध नहीं करेंगे। कृष्ण जी ने कहा कि तुम अर्जुन के साथ युद्ध करो। जरासंध ने अर्जुन से भी युद्ध करने से मना कर दिया। तब कृष्ण जी ने कहा कि तुम भीम से युद्ध करो।
जरासंध वध
जिसके बाद जरासंध और भीम का युद्ध होने लगा। जरासंध बहुत ज्यादा बलशाली था। भीम को मार करके नस-नस को तोड़ दिया। भीम भगवान श्री कृष्ण से कहते हैं भगवन यह मुझे मार करके खत्म कर देगा, कोई उपाय कीजिए। वही कृष्ण जी ने कहा कि इसके दोनों पैरों को आप चिड़ करके फेंकिए।, तभी यह मरेगा। अगले दिन युद्ध में भीम ने दोनों पैरों को चिड़ करके फेंक दिया। उसके बाद भी फिर से उसका दोनों पैर आपस में जुड़ गए और फिर भीम को मारने लगा।
एक बार पुनः भीम ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा यह नहीं मर रहा है कोई उपाय कीजिए। तब कृष्ण जी ने कहा कि इसके दोनों पैरों को फाड़ करके अलग-अलग दिशाओं में फेंकिए। क्योंकि इसको वरदान प्राप्त है कि जब भी एक साथ दोनों पैर इसका रहेगा तब तक वापस में जुड़ करके फिर से जीवित हो जाएगा। इस प्रकार से अगले दिन भीम ने जरासंध के दोनों पैरों को फाड़ करके अलग-अलग दिशाओं में फेंक दिआ। जिसके बाद जरासंध का लीला समाप्त हो गया। वहां से राजाओं को भगवान श्री कृष्णा मुक्त कर दिए।
दुर्योधन भगवान श्री कृष्ण को बंदी बनाया
इधर हस्तिनापुर में पांडव और कौरव के बीच काफी तनाव चल रहा था। भगवान श्री कृष्ण बहुत प्रयास किए कि आपस में इन लोगों को समझा बुझा कर ठीक कर दिया जाए। लेकिन उल्टे दुर्योधन भगवान श्री कृष्ण को ही बंदी बनाना चाहा। इधर कुंती माता भी अब कहने लगी की युद्ध करना अनिवार्य हो गया है। जिसके बाद कुरुक्षेत्र के मैदान में पांडव और कौरवों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जिसमें करोड़ों की संख्या में लोग मारे गए। युद्ध के समाप्ति के बाद केवल 10 लोग ही बचे। पांच पांडव, अश्वत्थामा, कृतवर्मा, भगवान श्री कृष्ण कृपाचार्य इत्यादि।
दुर्योधन घायल अवस्था में पड़ा हुआ था। उसका जांघ टूटा हुआ था। अश्वत्थामा से कहता है पांडवों को यदि कोई मार देता तो मुझे बहुत शांति मिलती। वही अश्वत्थामा पांडव पुत्रों को पांडव समझ करके गला काट देता है। जिसके बाद कटे हुए सर को दुर्योधन के पास लेकर जाता है। दुर्योधन अश्वत्थामा से कहता है, यह पांडव नहीं है यह तो पांडव पुत्र हैं। तुमने गलत कर दिया। जिसके बाद दुर्योधन वही अपना प्राण त्याग देता है।
युधिष्ठिर के द्वारा एक यज्ञ का आयोजन
इस प्रकार से आगे महाराज युधिष्ठिर के द्वारा एक यज्ञ का आयोजन किया जाता है। उस यज्ञ में भगवान श्री कृष्ण भी मौजूद रहते हैं। कृष्ण कहते है कि यज्ञ का सफलता तभी माना जाएगा, जब एक दास आकर के उस यज्ञ में प्रसाद ग्रहण करेंगे। सभी लोग प्रसाद ग्रहण कर लिए, फिर भी यज्ञ को सफल नहीं माना जा रहा था। तब एक दास थे उनको बुलाया गया। वह यज्ञ भंडारा में प्रसाद पाए। जिसके बाद महाराज युधिष्ठिर का यज्ञ सफल हुआ।
जब कुरुक्षेत्र में पांडव और कौरव के बीच युद्ध चल रहा था, उस समय बलराम जी तीर्थ यात्रा पर थे। क्योंकि एक बार नैमिशारण्य के पावन क्षेत्र में 88000 संत महात्माओं की उपस्थिति में लोमहर्षण सूत जी कथा सुना रहे थे। वहीं बलराम जी पहुंचे। जिसके बाद लोमहर्षण सूत जी के द्वारा उचित सत्कार नहीं किया गया। जिससे नाराज होकर बलराम जी ने एक चांटा लोमहर्षण सूट जी को मारा। जिसके बाद उनकी मृत्यु हो गई। वहीं उस आयोजन के मुखिया सौनक जी बलराम जी से प्रार्थना करने लगे हे भगवन अब इस व्यास गद्दी की शोभा कैसे बढ़ाया जाएगा। कथा कौन सुनाएगा। बलराम जी ने कहा कि कहिए तो एक बार पुनः हम जीवित कर देते हैं। सौनक जी ने कहा नहीं नहीं ऐसा हम नहीं कहेंगे। आप जो उचित समझे वही अच्छा है।
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बलराम जी का तीर्थ यात्रा
वही लोमहर्षण सूत जी के पुत्र उग्रसर्वा सूत जी व्यास गद्दी की आगे शोभा बढ़ाए। जिसके बाद लोमहर्षण सूत जी ब्राह्मण थे, इसलिए उनकी हत्या के दोष के निवारण के लिए बलराम जी तीर्थ यात्रा पर चले गए थे। इधर भगवान श्री कृष्ण का जितना दिन आयु था, उतना आयु पूरा हो गया था। यमराज उपस्थित हुए। बोले हे भगवन श्री कृष्ण आपका समय पृथ्वी पर पूरा हो गया है। भगवान ने कहा ठीक है।
हम इस पर विचार करेंगे। यमराज को ही धर्मराज के नाम से ही जाना जाता है। धर्मराज और यमराज दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हैं। लेकिन अलग-अलग समय पर अलग-अलग प्रकार के कामों के करने के लिए इन्हें दो नाम से जाना जाता है। जब यमराज नरक लोक में जाते हैं तो वह यमराज कहे जाते हैं। वहीं यमराज जब स्वर्ग लोक में जाते हैं तो उन्हें धर्मराज के नाम से जाना जाता है।
हस्तिनापुर में कुछ दिन तक पांडवों के साथ धृतराष्ट्र और गांधारी रहने के बाद वे लोग भी तीर्थ यात्रा पर निकल गए। जिसके बाद वे लोग अपने शरीर को त्याग करके इस दुनिया से विदा लिए। इधर भगवान श्री कृष्ण जी भी अपने परिवार के लोगों को समझा रहे थे। लेकिन परिवार के लोगों के आचरण व्यवहार को देखकर के काफी मन ही मन चिंतित थे।

रवि शंकर तिवारी एक आईटी प्रोफेशनल हैं। जिन्होंने अपनी शिक्षा इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी स्ट्रीम से प्राप्त किए हैं। रवि शंकर तिवारी ने डॉ एपीजे अब्दुल कलाम टेक्निकल यूनिवर्सिटी लखनऊ से एमबीए की डिग्री प्राप्त किया हैं।