परमानपुर चातुर्मास्य व्रत स्थल पर भारत के महान मनीषी संत श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज ने नामकरण संस्कार पर विशेष प्रकाश डाला। बच्चे और बच्चियों का जन्म से 11वें दिन, 12वें दिन नामकरण संस्कार कर देना चाहिए। शास्त्र के अनुसार नामकरण का भी विशेष महत्व बताया गया है। शास्त्रों में बच्चे और बच्चियों के जन्म के बाद नाम रखने का अधिकार विशेष रूप से पिता को बताया गया है। पिता ही नाम रखने का सबसे प्रथम अधिकारी है। वैसे लोग गुरु पुरोहित से भी नाम रखवाते हैं। लेकिन शास्त्र के अनुसार अपने बच्चे और बच्चियों का नाम रखने का अधिकार पिता को ही दिया गया है। यदि पिता न हो तो चाचा, बाबा, मामा, नाना, गुरु, पुरोहित से नामकरण करवाना चाहिए।
बच्चे बच्चियों का नामकरण संस्कार ग्यारहवें दिन होना चाहिए : श्री जीयर स्वामी जी महाराज
नामकरण का भी विशेष महत्व बतलाया गया है। किसी भी बच्चे या बच्ची का नाम भी सुंदर होना चाहिए। नाम ऐसा होना चाहिए जिसके स्मरण करने से अच्छे विचार, आचरण, व्यवहार का बोध होता हो, जिससे साकारात्मक ऊर्जा का संचार होता हो, वैसे नाम शास्त्र के अनुसार रखना चाहिए।
अजामिल जो जीवन भर पाप में लगा था। लेकिन उसने अपने पुत्र का नाम नारायण रख दिया। जब अजामिल अपने प्राण को त्याग कर रहा था, उस समय अपने पुत्र के नाम का उच्चारण किया। भले ही अजामिल ने अपने पुत्र का नाम लिया, लेकिन नारायण जो पूरे सृष्टि के सूत्रधार हैं, संचालन करने वाले हैं, उनका भी स्मरण कर लिया। भगवान श्रीमन नारायण ने कहा कि मरते समय भी मेरे नाम को स्मरण किया है। जिसके कारण आजामिल का भी उद्धार हो गया। इसीलिए अपने पुत्र और पुत्री का नाम भगवान से संबंधित होना चाहिए।

अच्छे कर्मों का फल कभी भी अच्छा ही होगा
जीवन यदि आपका मर्यादा पूर्ण नहीं रहा हो, लेकिन किसी भी कारणवस मरते समय यदि आपने भगवान के नाम का स्मरण कर लिया, तो आपका कल्याण संभव है। क्योंकि मरते समय बहुत ही कम लोगों के मुखारविंद से भगवान का नाम का स्मरण हो पाता है। जब किसी व्यक्ति का मृत्यु होता हो और उस समय भी भगवान का नाम यदि स्मरण हो जाता है तो यह भी अच्छे कर्मों का फल ही होता है।
बताया गया है कि जीवन भर यदि कोई भी व्यक्ति अच्छे कार्यों को करता है। भगवान का चिंतन, स्मरण करते हुए जीवन व्यतीत करता है। लेकिन किसी भी कारणवश मरते समय चाहे वह उत्तरायण में मरे या दक्षिणायन में मरे, चाहे दुर्घटना से मरे या रोग से मर जाए। मरते समय यदि उसके मुखारविंद से भगवान का नाम का स्मरण नहीं भी होता हो, तब भी उसके पूरे जीवन के पुण्य कर्मों के कारण मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि अच्छे कर्मों का फल कभी भी अच्छा ही होगा तथा बुरे कर्मों का फल कभी भी अच्छा नहीं हो सकता है।
भीष्माचार्य की मृत्यू
शांतनु महाराज के पुत्र भीष्माचार्य जो कई दिनों तक बाणों की सैया पर पड़े रहे। लेकिन वह अपने प्राण को नहीं त्यागे। जबकि भीष्माचार्य को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। उनका मृत्यु उत्तरायण में हुआ था। कुछ लोग कहते हैं कि उत्तरायण में मरना अच्छा होता है। लेकिन ऐसा नहीं है कि भीष्माचार्य उत्तरायण में मरने के लिए ही इंतजार कर रहे थे। क्योंकि भीष्माचार्य ने अपने पूरे जीवन काल में मर्यादित जीवन जीते हुए, अच्छे कर्मों को किया था। इसलिए उनका मृत्यु दक्षिणायन में भी होता तब भी उन्हें मोक्ष की ही प्राप्ति होती। भीष्माचार्य महापुरुष थे उन्हें यह ज्ञात था कि हमें इस जीवन लीला में कितना दिन पृथ्वी पर जीना है।
जब वह बाण सैया पर गए, तब उन्हें पृथ्वी पर जीने के लिए 58 दिनों का शेष समय बाकी था। इसलिए उन्होंने अपने प्राण का त्याग नहीं किया। क्योंकि यदि वे बीच में ही प्राण को त्याग देते तो फिर से उन्हें पृथ्वी पर आकर के उतना समय व्यतीत करना पड़ता। इसीलिए भीष्माचार्य ने अपने पूरे आयु को पूरा करने के बाद ही भगवान श्री कृष्ण के आज्ञा अनुसार अपने जीवन लीला को समाप्त किए।
मर्यादित नारी एवं वीरगति प्राप्त करने वालों को मिलता है मोक्ष
मानव जीवन में जन्म कुंडली का विशेष महत्व है
श्रीमद् भागवत कथा प्रसंग अंतर्गत शांतनु महाराज के वंश परंपरा में राजा परीक्षित का जब जन्म हुआ। उस समय उनका कुंडली पुरोहितों के द्वारा बनवाया गया। किसी भी बच्चे और बच्ची का जन्म के बाद कुंडली जरूर बनवाना चाहिए। यह आज से नहीं बल्कि सतयुग, द्वापर, त्रेता युग से ही कुंडली बनवाने की परंपरा है। राजा परीक्षित के जन्म के बाद उनका कुंडली बनवाया गया। कुंडली में कई अच्छे गुण के बारे में भी पुरोहित के द्वारा बताया गया। अंत में पुरोहितों ने राजा परीक्षित के परिवार के लोगों को बताया, आगे राजा परीक्षित के जीवन में संकट काल आने वाला है। जिसके कारण राजा परीक्षित से गलत कार्य होंगे तथा उसका प्रभाव राजा परीक्षित का मृत्यु का कारण बनेगा। उस समय उनके परिवार के लोगों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया। यदि समय रहते इस पर विचार किया जाता तो उसके लिए कुछ किया जा सकता था।
कुंती ने भगवान से विपत्ति मांगी
भगवान श्री कृष्ण हस्तिनापुर में थे। जहां पर कौरव और पांडवों के बीच युद्ध समाप्त हो गया था। अश्वत्थामा के द्वारा पांडव पुत्रों की हत्या के बाद अश्वत्थामा को उचित दंड अर्जुन के द्वारा दिया गया। एक दिन भगवान श्री कृष्णा हस्तिनापुर में मौजूद थे। जहां पर भगवान श्री कृष्ण ने पांचो पांडव, कुंती और अभिमन्यु की पत्नी से वरदान मांगने को कहा। सब लोगों ने अपनी इच्छा के अनुसार वरदान मांगा। लेकिन जब कुंती की बारी आई तब कुंती ने भगवान श्री कृष्ण ने विपत्ति मांगा। क्योंकि कुंती भगवान की भक्ति चाहती थी। शास्त्रों में बताया गया है कि पांच कन्या जो भगवान की सबसे प्रिय भक्त हैं, उनका नाम उच्चारण करने से मानव का कल्याण होता है। उनमें एक महिला कुंती भी है। उन पांच भगवान की भक्त महिलाओं का नाम अहिल्या, द्रौपदी, तारा, कुंती और मंदोदरी है। जिनका नाम सुबह में हर दिन स्मरण करना चाहिए।
इस प्रकार से कुंती ने भगवान से विपत्ति यानी उनकी भक्ति का वरदान मांगा। जिसके बाद भगवान श्री कृष्णा हस्तिनापुर से द्वारकापुरी जाने के लिए विदा मांगे। आगे की यात्रा भगवान श्री कृष्णा द्वारिकापुरी कैसे करते हैं। रास्ते में क्या-क्या घटनाएं होती है। इसकी चर्चा हम लोग कल करेंगे। तब तक जय श्रीमन नारायण।

रवि शंकर तिवारी एक आईटी प्रोफेशनल हैं। जिन्होंने अपनी शिक्षा इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी स्ट्रीम से प्राप्त किए हैं। रवि शंकर तिवारी ने डॉ एपीजे अब्दुल कलाम टेक्निकल यूनिवर्सिटी लखनऊ से एमबीए की डिग्री प्राप्त किया हैं।