घर में शांति के लिए हवन करना चाहिए

घर में शांति के लिए हवन करना चाहिए :  श्री जीयर स्वामी जी महाराज। परमानपुर चातुर्मास्य व्रत स्थल पर भारत के महान मनीषी संत श्री लक्ष्मी प्रपन्‍न जीयर स्वामी जी महाराज ने घर परिवार में शांति के लिए हवन का विशेष महत्व बताया। घर में हर महीने के पूर्णिमा के दिन सत्यनारायण भगवान का कथा करवा करके विधि विधान से हवन करना चाहिए। वैसे शास्त्रों में हवन करने का विधान नित्य बताया गया हैं। लेकिन जिनके पास समय का अभाव है, जो प्रतिदिन हवन आहुति नहीं कर सकते हैं, उन्हें पूर्णिमा के दिन जरूर हवन करना चाहिए। 33 करोड़ देवता हवन से प्रसन्न होते हैं।

गृह में शांति के लिए हवन ,यज्ञ आहुति करना चाहिए

हवन इत्यादि का महत्व छोटे यज्ञ के समान बताया गया है। जिस प्रकार से बड़े-बड़े यज्ञ का आयोजन होता है। उस यज्ञ में अग्नि देव को प्रज्‍वलित करके आहुति दी जाती है। बहुत से लोग अग्नि को स्त्रीलिंग समझते हैं। लेकिन अग्नि स्त्रीलिंग नहीं पुलिंग है। अग्नि देव के पत्नी का नाम स्वाहा है। जब पूजा, पाठ, यज्ञ में अग्नि देव को प्रज्‍वलित करके आहुति दी जाती है, उस समय स्वाहा को उच्च स्वर में बोलना चाहिए। क्योंकि अग्नि देव की पत्नी स्वाहा को भी प्रसन्न करना चाहिए। 

हवन का विशेष महत्व

जितने भी प्रकार के पूजा पाठ इत्यादि किया जाता है, उसमें हवन का विशेष महत्व बताया गया है। क्योंकि जो भी सामग्री भगवान के पूजा पाठ में भगवान को चढ़ाया जाता है, उन सभी सामग्रियों सहित हवन का विधान बताया गया हैं। क्योंकि साक्षात जब अग्नि देव को प्रज्‍वलित किया जाता है। तब उसमें जो आहुति दी जाती है, हवन की आहुति साक्षात परम ब्रह्म परमेश्वर सहित 33 कोटि देवता को प्राप्त होता है। जिससे देवी, देवता, ईश्वर प्रसन्न होते हैं। घर में सुख शांति का वास होता है।

ghar me shanti ke liye hawan karna chahiye

सतयुग, त्रेता, द्वापर युग में भी ऋषि महर्षि तपस्वी हवन करके साधना करते थे। पुराणों और शास्त्रों में बताया गया है कि जितने भी ऋषि, महर्षि, तपस्वी तपस्या साधना किए, उन्होंने अपनी तपस्या साधना को सफल बनाने के लिए निरंतर हवन, आहुति, यज्ञ इत्यादि करते रहते थे। कलयुग में भी मानव का कल्याण नित्य हवन करने से बतलाया गया है।

घर में चाहे तिल, शकील, घी से भगवान के नाम का उच्चारण करते हुए जितना सामग्री उपलब्ध हो उसके अनुसार एक बार, पांच बार, 11 बार या अपने व्यवस्था के अनुसार हवन करना चाहिए

ईमानदारी, खून, पसीना, मेहनत से कमाया गया धन सही

कौरव और पांडव के बीच जब युद्ध समाप्त हो गया तब भीष्माचार्य अपनी तपस्या साधना से भगवान के लोक को प्राप्त कर गए। उसके बाद पांचो पांडव के द्वारा भगवान श्री कृष्णा के आज्ञा से यज्ञ का आयोजन किया गया। उसी समय उत्तर प्रदेश के बलिया जिला में भी एक तपस्वी के द्वारा यज्ञ कराया जा रहा था। उन तपस्वी के पास अधिक मात्रा में धन इत्यादि नहीं था। वे केवल आधा किलो सत्तू के माध्यम से यज्ञ का आयोजन किए थे। जिस यज्ञ में एक नेवला प्रसाद पाने के लिए आया। वह नेवला सत्तू का प्रसाद पाया। 

जिसके बाद वह पानी में जाकर के अपने पूंछ को हिला रहा था। कुछ देर बाद उसने देखा कि उसका पूंछ सोने के समान हो गया था। उसने सोचा कि यज्ञ में प्रसाद पाने से मेरा पूछ सोने का हो गया हैं, तो धर्मराज युधिष्ठिर के द्वारा भी एक यज्ञ कराया जा रहा है। उनके यज्ञ में यदि हम जाकर के प्रसाद ग्रहण करेंगे तो मेरा शरीर पूरा सोने का हो जाएगा। वहीं नेवला धर्मराज युधिष्ठिर के यज्ञ में भी जाकर के प्रसाद ग्रहण किया। जिसके बाद पानी में जाकर के अपने पूरे शरीर को भिगोया। 

लेकिन उसके शरीर पर किसी भी प्रकार का बदलाव नहीं हुआ। वह सोचने लगा कि धर्मराज युधिष्ठिर इतने बड़े राजा हैं। उनके राजकाज में धन की कोई सीमा नहीं है। फिर भी मेरा शरीर सोने का नहीं हुआ। जबकि वह छोटा यज्ञ जिसमें केवल सत्तू के माध्यम से यज्ञ को आयोजित किया गया था, वहां पर प्रसाद ग्रहण करने से मेरा पूंछ सोने का हो गया। इसका कारण क्या है। 

मानव जीवन में दान का विशेष महत्व

स्वामी जी ने कहा जो व्यक्ति खून, पसीना, ईमानदारी, मेहनत करके ₹300 कामता हो तथा वह उसमें से ₹20 दान करता हो तो उस व्यक्ति को बहुत ज्यादा फल मिलता है। वहीं एक व्यक्ति ₹100000 कामता हो। लेकिन ₹100000 कमाने के लिए उसने कितना झूठ, फरेब, अत्याचार, गलत आचरण इत्यादि किया हो तथा उसमें से वह 1000, 2000, 10000 दान भी कर देता हो तब भी उसके दान का उतना ज्यादा महत्व नहीं होगा। 

जितना एक व्यक्ति ईमानदारी से खून पसीना मेहनत से ₹300 काम करके ₹10 दान किया हो, उस व्यक्ति के ₹10 का दिया हुआ दान का विशेष महत्व है। इसीलिए सत्तू के साथ यज्ञ कर रहे तपस्वी के यज्ञ में उस नेवले का पूंछ प्रसाद ग्रहण करने से सोना का हो गया। जबकि धर्मराज युधिष्ठिर के यज्ञ में अनेको व्यंजन खाने के बाद भी उस नेवला के शरीर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। 

क्योंकि धर्मराज युधिष्ठिर के पास धन का भंडार था। उनमें से कुछ लाख, करोड़ रुपए यज्ञ इत्यादि में खर्च भी कर दिए, तब भी उसका उतना ज्यादा प्रभाव नहीं हुआ। जितना एक तपस्वी साधना करने वाले साधक ने कम सामग्री भोजन इत्यादि के व्यवस्था में भी यज्ञ में फल प्राप्त कर लिए। इसीलिए धन कमाने के लिए सात्विक आचरण, व्यवहार, ईमानदारी, मेहनत को ही प्रधान बताया गया।

Leave a Comment