जब कोई रक्षा नहीं करता है तब एकमात्र ईश्वर ही सहायक होते हैं

जब कोई रक्षा नहीं करता है तब एकमात्र ईश्वर ही सहायक होते हैं – परमानपुर चातुर्मास्य व्रत स्थल पर भारत के महान मनीषी संत श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज ने कहा कि भगवान देवता, दानव, जीव, जंतु सबका कल्याण करते हैं। गजेंद्र नाम के एक हाथी जब संकट में पड़ा, उस समय उसकी रक्षा करने वाला कोई नहीं था। एक बार गजेंद्र हाथी अपने पत्नी बच्चों के साथ जल में क्रीड़ा कर रहा था। वहीं पर ग्राह धीरे-धीरे गजेंद्र के पैरों को पकड़ रहा था। लेकिन गजेंद्र नाम का हाथी इतना ज्यादा मदमस्त था कि उसे ग्राह के पैर पकड़ने की आभास नहीं हो रहा था। 

जब कोई रक्षा नहीं करता है तब एकमात्र ईश्वर ही सहायक होते हैं

वही धीरे-धीरे पानी में गजेंद्र नाम का हाथी क्रीड़ा करते-करते धीरे-धीरे कमजोर होने लगा। ग्राह गजेंद्र हाथी को खींचने लगा। गजेंद्र बिना खाए पिए रहने के कारण कमजोर भी हो गया था। उस समय उसकी पत्नी बच्चों को मदद करने को कहा कुछ देर के लिए तो पत्नी और बच्चों ने ग्राह से बचाने के लिए गजेंद्र नाम के हाथी को मदद किया। लेकिन जब उसके पत्नी और बच्चों को लगा कि हम लोग इसको नहीं बचा सकते हैं, तब उसके पत्नी और बच्चे उसे छोड़कर बाहर निकल गए। इसीलिए कहा गया है कि व्यक्ति का जब समय खराब होता है, तब उसकी मदद करने वाला पत्नी बाल बच्चे रिश्तेदार पड़ोसी कोई नहीं होता है।

jab koi raksha nahi karta hai tab ishwar hi sahayara karte hai

वही गजेंद्र नाम के हाथी के साथ भी हुआ। ग्राह धीरे-धीरे गजेंद्र को खींचते हुए पानी के बीच में लेकर चला गया। वहां गजेंद्र हाथी चिल्ला रहा था बचाओ बचाओ। वही ब्रह्मा जी का भी नाम लिया। लेकिन उसे किसी पर विश्वास नहीं था। क्योंकि उसकी पत्नी बच्चे भी उसे छोड़ दिए थे। ब्रह्मा जी इधर मदद करने के लिए सोच ही रहे थे। तब तक गजेंद्र हाथी शंकर जी का नाम ले लिया। ब्रह्मा जी ने सोचा कि उसे मुझ पर विश्वास नहीं है, वह भी चुप हो गए। इधर शंकर जी भी सुनकर के चुप हो गए। मन ही मन सोचने लगे कि यह मुझ पर भी विश्वास नहीं करेगा। फिर किसी दूसरे को बुलाएगा। 

ईश्वर सभी जीव जंतु का मंगल करते हैं

वही जब कोई सहायता नहीं किया, तब गजेंद्र हाथी चिल्ला चिल्ला कर कहने लगा कि सृष्टि के संचालन कर्ता, पालन कर्ता हमें बचाइए। वही भगवान श्रीमन नारायण इस बात को सुनकर के उस गजेंद्र को बचाने के लिए निकाल जाते हैं। कहा गया है कि दुनिया में जब कोई मदद करने वाला नहीं होता है, तब वह परमब्रह्म भगवान श्रीमन नारायण जीवों की रक्षा करते हैं। इसीलिए निरंतर उन भगवान श्रीमन नारायण का ध्यान, चिंतन, मनन, स्मरण करना चाहिए। क्योंकि दुख के समय में संसार में रहने वाले कोई भी प्राणी किसी का नहीं होता है। वही श्रीमन नारायण अपना चक्र छोड़कर के गजेंद्र नाम के हाथी की रक्षा किए।

गजेंद्र ने जब भगवान को आते हुए देखा तो उन्होंने अनेक स्तुतियों से भगवान का स्मरण किया और भगवान से आशीर्वाद लिया। फिर पीछे से गरुड़ जी भी वहां पर आ गए। उन्होंने भगवान से क्षमा मांगी। कहा कि हे त्रिलोकी नाथ आने में मुझे देर हो गई। तब भगवान श्रीमन नारायण ने गरुड़ जी का भी वहां पर अहंकार तोड़ा। राजा परीक्षित से शुकदेव जी कहते हैं कि वह ग्राह श्राप के कारण ही ग्राह योनि में जन्म लिया था। वह पिछले जन्म में हुहु नाम का एक गंधर्व था। जो कि एक देवल ऋषि के श्राप के कारण ग्राह बन गया था।

दुख पड़ने पर पत्नी बाल बच्चे भी साथ छोड़ देते हैं 

समाज में अक्सर देखने को मिलता है कि जब कोई माता-पिता बुजुर्ग हो जाते हैं, तब परिवार को लगने लगता है कि वह ठीक नहीं होंगे। तब वह अपने माता-पिता के प्रति भी उदास व्यवहार करने लगते हैं। मन ही मन सोचते हैं कि अब चले जाते तो अच्छा होता। जीन माता-पिता ने अपनी परिवार के लिए कितना दुख तकलीफ सह करके सारी व्यवस्था को व्यवस्थित किए, वहीं जब उनका स्थिति विपरीत हो जाता है, तब उनके साथ बच्चों का व्यवहार आचरण पूरी तरीके से बदल जाता है

श्रीमद् भागवत कथा अंतर्गत एक बार दुर्वासा ऋषि बैकुंठ लोक में गए थे। तब भगवान श्रीमन नारायण ने उनका बहुत आदर, सत्कार, सम्मान किया। जिससे दुर्वासा ऋषि बहुत प्रसन्न हुए। जब वहां से दुर्वासा ऋषि जाने लगे, तब भगवान श्रीमन नारायण ने अपने गले से माला निकाल कर दुर्वासा ऋषि के गले में डाल दिए। जिसके बाद दुर्वासा ऋषि बहुत प्रसन्न हुए कि भगवान श्रीमन नारायण ने अपने गले की माला मुझे दे दी। इसी प्रसंन्‍नता में दुर्वासा ऋषि जा रहे थे तो रास्ते में उन्हें देवराज इंद्र से भेंट हुई। इंद्र देव ने उन्हें प्रणाम किया। 

तब दुर्वासा ऋषि खुश होकर वह माला इंद्र को दे दिया। अब देवराज इंद्र को भी अहंकार हो गया कि भगवान विष्णु का माला दुर्वासा ऋषि को मिला और दुर्वासा ऋषि ने हमें दे दिया। इस तरह देवराज इंद्र ने अपने गले से माला निकाल कर अपने हाथी के सिर पर रख दिया। हाथी ने उस माला को गिराकर पैरों से कुचल दिया। यह सभी दृश्य देखकर दुर्वासा ऋषि बहुत क्रोधित हुए। देवराज इंद्र को श्राप दे दिए। उन्होंने कहा कि तुम्‍हारा ऐश्वर्या खत्म हो जाए। 

अनमोल रत्‍नों के लिए हुआ था समुद्र मंथन

यह सारी घटना दैत्य के गुरु शुक्राचार्य ने देख लिया। उन्होंने राजा बलि को जाकर यह सारी घटना बताई। जिसके बाद राजा बलि ने देवराज इंद्र पर आक्रमण करके स्वर्ग का राजा बन गए। अब सभी देवता परेशान हो गए। सभी लोग ब्रह्मा जी शंकर जी को लेकर भगवान विष्णु के पास गए। विष्णु भगवान ने कहा कि इसका एक ही उपाय है। समुद्र मंथन करना पड़ेगा। समुद्र मंथन से कई रत्‍न निकलेंगे। जिसमें अमृत भी निकलेगा। उस अमृत को पीकर सभी देवता लोग अमर बन जाएंगे।

जिसके बाद भगवान विष्णु ने सभी देवता को राजनीति, कूटनीति, धर्म नीति, परिवार नीति, समाज नीति का ज्ञान दिया। उन्होंने कहा कि सबसे पहले जाकर तुम्हें राक्षसों से संधि करना होगा। जिसके बाद सभी देवता राजा बलि के पास गए। राजा बलि से उन्होंने कहा कि आप और हम एक ही पिता के पुत्र हैं। इसलिए हम भाई हैं। बस माता अलग-अलग है। इसलिए हम एक ऐसा उपाय बताते हैं, जिससे हम दोनों मरेंगे नहीं। राजा बलि ने कहा कि ऐसा कौन सा उपाय है। 

तब देवराज इंद्र ने बताया कि समुद्र मंथन होगा जिसमें से अमृत निकलेगा और हम सभी लोग देवता और दैत्य दोनों पिएंगे। जिस पर दैत्य और देवता के बीच संधि हो गया। इस तरह समुद्र मंथन की तैयारी होने लगी। जिसमें मंद्राचल पर्वत को मथानी बनाया गया। बासुकि नाग को रस्सी बनाया गया। भगवान विष्णु कश्चप अवतार लेकर मंद्राचल पर्वत के नीचे स्थित हुए। बासुकी नाग के मुंह के तरफ राक्षस दैत्य थे और पूंछ के तरफ देवता थे। समुद्र मंथन में सबसे पहले विष निकला। उस विष को भगवान शंकर ने पी लिया। जिससे उनका गला नीला हो गया। उसी के बाद भगवान शंकर का एक नाम नीलकंठ हो गया।

समुद्र मंथन से निकला था अनमोल रत्‍न और अमृत

फिर समुद्र मंथन से कामधेनु गाय निकली। श्वेत रंग का घोड़ा निकला। जिसे इंद्र भगवान ने लिया। चंद्रमा निकले जिनको देवताओं की कोटी में रखा गया। पारिजात वृक्ष और कल्पवृक्ष ‌ निकला, जिसको स्वर्ग में रखा गया। रंभा और कई अप्सरा निकली, उनको भी स्वर्ग में रखा गया। एरावत हाथी निकली जो कि देवराज इंद्र ने लिया। मणी निकला जिसे भगवान विष्णु ने धारण किया था। मदिरा निकला जिसे दैत्यों को दिया गया। फिर लक्ष्मी जी निकली। लक्ष्मी जी निकली तब दैत्‍य और देवताओं में हुआ कि हम लेंगे तो हम लेंगे। तब भगवान ने कहा कि स्वयंवर होगा। स्वयंवर में लक्ष्मी जी ने भगवान श्रीमन नारायण के गले में माला डाल दिया।

लक्ष्मी जी के बाद धन्वंतरी जी अमृत कलश लेकर निकले। तब उनके हाथों से अमृत का कलश दैत्‍य छीन कर लेकर भाग गए। 12 वर्षों तक दैत्य अमृत कलश लेकर भागते रहे। इसी क्रम में प्रयागराज, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन चारों जगह कुछ-कुछ बूंद अमृत का गिर गया। इसलिए यहां पर 12 वर्षों पर कुंभ का मेला लगता है। सभी दैत्‍य आपस में झगड़ने लगे कि अमृत कौन सबसे पहले पिएगा। तभी भगवान विष्णु मोहिनी रूप लेकर वहां पर पहुंचे और मोहिनी को देखकर सभी दैत्‍य अमृत को भूलकर मोहिनी के लिए लड़ने लगे। 

भगवान का मोहिनी अवतार

भगवान के मोहिनी अवतार को देखकर सभी दैत्य मोहित हो गए। तब मोहिनी जी ने कहा कि अमृत कलश मुझे दे दो मैं सभी को पिला दूंगी। तभी वहां देवता भी आ गए। मोहिनी ने कहा कि देवताओं को ऊपर का पतला अमृत दे देंगे और नीचे जो गाढ़ा है वह दैत्यों को पिलाऊंगी। इस तरह सभी राक्षस एक लाइन में और देवता एक लाइन में बैठे गए। तभी दैत्य में से एक दैत्य देवताओं के लाइन में बैठ गया। उसने भी अमृत पी लिया। तभी विष्णु भगवान उसे पहचान गए। 

लेकिन दैत्‍य वहां से भाग गया। फिर भी विष्णु भगवान ने अपना सुदर्शन चक्र छोड़ दिया और वह दो भागों में कट गया। क्योंकि उसने अमृत पिया था इसलिए उसका मृत्यु नहीं हुआ। वह दो भाग ऊपर का सर राहु के नाम से जाना गया और नीचे का धड़ केतु के नाम से जाना गया। राहु और केतु दोनों ग्रह बन गए। जिसके बाद मोहिनी अवतार में भगवान विष्णु सभी देवताओं को अमृत पिला दिए। तभी दैत्य ने भगवान विष्णु को भी पहचान लिया। 

जिसके बाद देवासुर संग्राम हुआ है। जो कि कई वर्षों तक चला। अमृत कलश को स्वर्ग में रख दिया गया। देवासुर संग्राम में सभी दैत्‍यों का वध हो गया। लेकिन दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने राजा बलि को संजीवनी मंत्र के वजह से जिंदा कर दिया। जिसके बाद शुक्राचार्य ने राजा बलि के द्वारा 99 यज्ञ करवाया। 100वां यज्ञ करवा रहे थे, उसी में राजा बलि के हाथों भगवान विष्णु ने वामन अवतार रूप लेकर सब कुछ दान में ले लिया।

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