नारायण कवच का पाठ करने से घर में मंगल होता है : श्री जीयर स्वामी जी महाराज 

नारायण कवच का पाठ करने से घर में मंगल होता है : श्री जीयर स्वामी जी महाराज – परमानपुर चातुर्मास्य व्रत स्थल पर भारत के महान मनीषी संत श्री लक्ष्मी प्रपन्‍न जीयर स्वामी जी महाराज ने कहा कि घर में शांति के लिए नारायण कवच का पाठ करना चाहिए। किसी भी व्यक्ति के घर में सुख शांति की कमी है, तो उसके लिए स्नान करके शुद्धता के साथ नियम से नारायण कवच का पाठ करना चाहिए। वहीं घर में सुख, शांति, समृद्धि, धन की कमी इत्यादि होने पर प्रतिदिन सुबह, दोपहर, शाम नियम से गजेंद्र मोक्ष का स्तुति करना चाहिए। 

नारायण कवच का पाठ करने से घर में मंगल होता है

इंद्र ने भी नारायण कवच को पढ़कर अपने आप को राक्षस के पेट के अंदर सुरक्षित रख पाए थे। इसीलिए नारायण कवच का पाठ करने वाले व्यक्ति का मंगल होता है। वित्रा सुर राक्षस जो इंद्र से युद्ध कर रहा था, वह युद्ध करते समय इंद्र को अपने मुंह में निगल गया। जिसके कारण इंद्र उसके पेट में चले गए। फिर भी इंद्र नारायण कवच का पाठ करने के कारण पेट में भी जीवित रहे। वहीं आगे चलकर पेट फाड़कर इंद्र बाहर आए तथा वित्रा सुर का सर्वनाश किया।

इंद्र ने अपना पुरोहित बदला

देवताओं के पुरोहित बृहस्पति भगवान थे। इंद्र ने अपना पुरोहित बदल लिया था। एक बार इंद्र अप्सराओं के साथ नृत्‍य का आनंद ले रहे थे। उसी समय बृहस्पति जी आ गए। जिनको देखकर इंद्र ने अपना मुंह घुमा लिया। वहीं बृहस्पति नाराज होकर के पुरोहित का काम छोड़कर लुप्त हो गए। जिसके बाद इंद्र अपने पुरोहित को खोजने लगे। बहुत प्रयास करने के बाद भी बृहस्पति जी नहीं मिले। जिसके बाद इंद्र ने त्‍वष्‍टा ऋषि के पुत्र विश्‍वगुरू को पुरोहित रख लिया। जिनका ननिहाल राक्षसों के खानदान में था। वह पुरोहित देवताओं का पूजा पाठ करते मंगल की कामना करते। 

narayan kawach ka path karne se ghar me mangal hota hai

लेकिन अपनी माता के कुल खानदान के लिए भी मंगल की कामना कर देते थे। क्योंकि उनकी माता राक्षसों की खानदान की थी। वही एक दिन इंद्र नाराज हो गए। कहे कि आप पुरोहित हम लोगों के हैं और मंगल की कामना अपने ननिहाल के लोगों के लिए करते हैं। दक्षिणा दान हम लोग देते हैं और मंगल की कामना राक्षसों के लिए करते हैं। वही गुस्से में आकर एक दिन पुरोहित का सिर काट दिए। जिसके बाद उन्हें ब्रह्म हत्या का पाप का सामना करना पड़ा।

इंद्र के ब्रह्म दोष को तीन लोगों ने ले लिया। उनमें सबसे पहले स्त्रियों ने ब्रह्म हत्या का दोष लिया जिसके कारण उन्हें अशुद्धी अवस्था होती है। इसीलिए स्त्रियों को तीन दिन तक पूजा पाठ इत्यादि को वर्जित किया गया है। पेड़ पौधों ने भी इंद्र के ब्रह्म हत्या दोष को ले लिया था। जिसके कारण कुछ पेड़ों में लासा दिखाई पड़ता है। वह लासा ब्रह्म हत्या का दोष के कारण ही पेड़ में दिखाई पड़ते हैं।

इंद्र के ब्रह्म दोष को तीन लोगों ने ले लिया था

वही इंद्र के ब्रह्म हत्या के दोषों को पृथ्वी माता ने भी ले लिया। जिसके कारण कहीं-कहीं आपको दिखाई पड़ता है कि बंजर भूमि होता हैं। जहां पर भूमि उपजाऊ नहीं होता है। वैसे भूमि पर घर नहीं बनाना चाहिए नहीं तो घर में सुख शांति नहीं होती हैं। इस प्रकार से जो बंजर भूमि होता है, उस पर यदि घर बनाना भी है तो कम से कम 10 से 20 फीट का मिट्टी हटा करके अच्छी मिट्टी डाल देना चाहिए। उसके बाद घर बनाना चाहिए।

जिसके बदले में इंद्र ने पृथ्वी, वृक्ष और स्त्री को भी वरदान दिया। स्त्रियों के लिए वरदान दिया कि वह अपनी इच्छा से रमण कर सकती है।   वहीं पेड़ को वरदान प्राप्त हुआ, जिसके कारण कुछ पेड़ों के टहनी को भी यदि जमीन में लगा दिया जाता है तो वह पेड़ बन जाता है। वहीं पृथ्वी माता को भी वरदान प्राप्त हुआ, कहीं पर भी कोई गड्ढे दिखाई पड़ते हैं, वह भी धीरे-धीरे अपने आप भर जाते हैं। इस प्रकार से तीनों को इंद्र के द्वारा वरदान दिया गया। 

वहीं जल को भी इसका हिस्सेदार बनाया गया था। इसलिए कहीं-कहीं देखा जाता है कि एक ही जगह पर रहने वाला जल बहुत गंदा हो जाता है। लेकिन जब बाढ़ इत्यादि का पानी आता है तो उसका भी जल शुद्ध हो जाता है तथा इंद्र ने एक और वरदान दिया कि कभी भी समुद्र का जल कम नहीं होगा।

वरुण देवता के पुत्र महर्षि वाल्मीकि जी थे

शुकदेव जी ने राजा परीक्षित से कहा कि जब ब्रह्मा जी ने वंश परंपरा का विस्तार करना चाहा। ब्रह्मा जी के पुत्र मरीचि ऋषि हुए। मरीचि ऋषि के पुत्र कश्यप ऋषि हुए। कश्यप ऋषि के 12 आदित्य देवता पुत्र हुए। जिनमें सबसे बड़े सूर्य देव थे। उसके बाद अर्जमा, पूसा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और 12वें पुत्र वामन भगवान के रूप में हुए। कश्यप ऋषि की पत्नी अदिति से होने के कारण यह 12 पुत्र आदित्य देवता कहे जाते हैं। 

कश्यप ऋषि के पुत्र वरुण देवता के ही पुत्र महर्षि वाल्मीकि थे। वरुण देवता के पुत्र होने पर भी वाल्मीकि जी एक बहुत बड़े अपराधी थे। जिनका दिनचर्या लोगों को लूटना, चोरी करना, डकैती, हत्या करना था। लेकिन एक दिन सप्त ऋषियों का संग प्राप्त करके वाल्मीकि जी अपराधी से एक बहुत बड़े महर्षि बन गए। जिन्होंने रामायण जैसा ग्रंथ का निर्माण किया।

मनुष्य अमर्यादित और दूसरे के चंचल स्वभाव को देखकर के भी भटक जाता है

कभी-कभी मनुष्य अमर्यादित और दूसरे के चंचल स्वभाव को देखकर के भी भटक जाता है। अपना मर्यादा भूल जाता है। कश्यप ऋषि के पुत्र वरुण और मित्र एक बार कहीं जा रहे थे तो वहां उन्होंने एक अप्सरा और एक लंपट्ट पुरुष की अमर्यादित व्यवहार को देखकर चंचल हो गए। जिसके कारण वरुण और मित्र के ओज और तेज के कारण दो बालक हुए। जिनका नाम अगस्त ऋषि और वशिष्ठ ऋषि हुआ।  

वैसे तो वशिष्ठ ऋषि ब्रह्मा जी के पुत्र थे। लेकिन एक श्राप के कारण उन्होंने दूसरा जन्म लिया। एक बार राजा नेमी यज्ञ कर रहे थे। उन्होंने वशिष्ठ ऋषि से कहा कि गुरुदेव आप मेरा पूजा करवा दीजिए। तब वशिष्ठ ऋषि ने कहा कि अभी तो मैं देवलोक जा रहा हूं। वहां से पूजा कर कर आऊंगा तब आपके घर आऊंगा। अब वशिष्ठ ऋषि ने हां भी नहीं कहा और न भी नहीं कहा, वहां से चले गए। तब नेमी राजा ने दूसरे ब्राह्मण को बुलाकर यज्ञ शुरू करवा लिया। 

मनुष्‍य का पलक क्‍यों झपकता हैं

जैसे ही वशिष्ठ ऋषि आए तो उन्होंने देखा कि दूसरा ब्राह्मण पूजा करा रहे है तो वह बहुत ही गुस्सा हो गए। तब वशिष्ठ ऋषि ने राजा नेमी को श्राप दे दिया कि तुम्हारा शरीर समाप्‍त हो जाए।  जिसके बाद राजा नेमी ने भी वशिष्ठ ऋषि को श्राप दे दिया कि मेरा तो शरीर नष्ट होगा ही आपका भी शरीर नष्ट हो जाए। जब राजा नेमी मरने लगे, तब भगवान ने कहा कि कुछ वरदान मांगो। तब राजा नमी ने कहा कि हे प्रभु मेरा शरीर तो समाप्त हो ही जाएगा, लेकिन आप मुझे वरदान दीजिए कि जब प्राणी का आंख का पलक झपके उस पलक पर मेरा वास हो।

देवता और राक्षस में क्या अंतर होता है इसको भी समझना जरूरी हैं। देवता जो होते हैं उनका कभी भी पलक नहीं झपकता है। राजा नेमी ने जो वरदान मांगा था, भगवान से कि मैं प्राणियों के पलक पर वास करूं तो वह देवताओं के पलक प्रवास करने के लिए नहीं बोले थे। इसलिए देवता का पलक नहीं झपकता है। दूसरा जब देवता का पैर धरती पर नहीं रहता है। तीसरा देवता कभी भी वृद्धावस्था में नहीं रहते हैं। चौथा जो देवता होते हैं उनका छाया कभी दिखाई नहीं देता है। वहीं राक्षस के शरीर से कई प्रकार का दुर्गंध आता हैं। उनका पैर उल्‍टा होता हैं। उनका शरीर विकराल होता हैं।

जब राजा नेमी ने वशिष्ठ ऋषि को श्राप दिया तो कहा कि मेरा तो शरीर समाप्त हो ही जाएगा, आपका भी शरीर समाप्त हो जाएगा। इस तरह से नमी राजा के समाप्त होने के बाद वशिष्ठ ऋषि का भी शरीर समाप्त हो गया। वहीं दूसरे जन्म में वरुण और मित्र के ओज और तेज से फिर से वशिष्ठ ऋषि का जन्म हुआ। लेकिन उनका नाम फिर से वशिष्ठ ऋषि ही हुआ। 

सूर्यवंशी और इक्ष्वाकू वंश कैसे कहलाए

कश्यप ऋषि के बड़े पुत्र सूर्य भगवान का विवाह देव शिल्पी विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा के साथ हुआ था। संज्ञा और सूर्य से तीन संतान हुए। जिनमें सत्यव्रत श्राद्धेय देव वैवस्वत मनु, यमराज और यमी एक पुत्री हुई। लेकिन संज्ञा सूर्य भगवान के तेज को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। इसलिए संज्ञा ने अपने शक्ति और बल से एक स्त्री को अपनी छाया के रूप में बनाया और खुद घोड़ी का रूप लेकर जाकर तपस्या करने लगी। सूर्य देव और छाया से सावर्णी मनु, शनिचर और ताप्ती के रूप में एक पुत्री हुई। जो कि अगले जन्म में तप्ती नदी बनी। 

अब छाया जो संज्ञा की एक छाया रूपी स्त्री थी। वह संज्ञा के पुत्रों के साथ सौतेला व्यवहार करती थी। इसीलिए एक दिन यमराज ने कहा कि तुम हमारी माता नहीं हो क्या, तुम सौतेली माता के जैसा व्यवहार करती हो। जिससे छाया गुस्सा होकर यमराज को श्राप दे दी कि जाओ तुम नरक के स्वामी बन जाओ और यमी को भी श्राप दिया कि तुम अगले जन्म में यमुना नदी के रूप में जन्म लो।

यह सारी घटना सूर्य देव ने देख लिया था। जिससे उन्होंने छाया के पुत्र शनिचर को श्राप दे दिया कि जो तुम क्रूर बन जाओ। सूर्य के तीसरी पत्नी जो की घोड़ी स्वरूप में थी, उनसे भी दो अश्विनी कुमार हुए। वही सूर्य भगवान से जो आगे वंश परंपरा चला वह सूर्यवंशी और इक्ष्वाकू वंश कहलाए।

Leave a Comment