संस्कृति की रक्षा करने के लिए संस्कृत जानना जरूरी : श्री जीयर स्वामी जी महाराज – परमानपुर चातुर्मास्य व्रत स्थल पर भारत के महान मनीषी संत श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज ने कहा कि संत, महात्मा, साधु को संस्कृत जानना उनका मौलिक धर्म है। संस्कृत केवल एक भाषा ही नहीं बल्कि देव वाणी है, संस्कृत वेद वाणी भी है। संस्कृत का अविष्कार ईश्वर से हुआ है। संस्कृत संस्कार की जननी है। संस्कृत के बिना मानव जीवन का संस्कार पूरा नहीं हो सकता है। दुनिया में चाहे जितनी भी अलग-अलग भाषाएं है, उन भाषाओं को हम सभी लोग अपने दैनिक जीवन में उपयोग करते हैं। लेकिन जब वैदिक परंपरा के अनुसार पूजा, पाठ, मंत्रोच्चार करना होता है, तो उसके लिए देव वाणी संस्कृत ही सर्वोत्तम वाणी है।
संस्कृति की रक्षा करने के लिए संस्कृत जानना जरूरी
मानव जीवन को संचालित करने के लिए सरकार के द्वारा संविधान एवं और भी कई प्रकार के कानून नियम बनाए गए हैं। ठीक इसी प्रकार से इस पूरे दुनिया, ब्रह्मांड का संचालन करने के लिए नियम, कानून, आर्टिकल्स उन परम ब्रह्म भगवान परमेश्वर के द्वारा भी बनाया गया है। जिनकी भाषा संस्कृत हैं। इसलिए यदि आप संस्कृत नहीं जानेंगे, नहीं समझेंगे, नहीं पढ़ेंगे तो आप मानव जीवन जीने की जो मर्यादा, तरीका, जीवन शैली, संस्कार है, उसको आप नहीं सीख पाएंगे। इसीलिए खास करके जो संत, महात्मा, साधु की श्रेणी में अपने आप को मानते हैं, उन्हें तो अवश्य संस्कृत की जानकारी होनी चाहिए।

साधु को भी संस्कृति और संस्कृत को जरूर जानना चाहिए
आज से 6000 वर्ष पहले जब इतिहास, पुराण, वेद, उपनिषद श्रुति के रूप में था। कहने सुनने के रूप में था। उसको व्यास जी के द्वारा लिखित रूप में लिखा गया। जिसके बाद आज वेद, पुराण, इतिहास, उपनिषद लेखनी के रूप में मौजूद है। लेकिन यदि आप संस्कृत नहीं जानेंगे तो उन वेद, पुराण, इतिहास, उपनिषद में लिखे गए श्लोकों का मतलब कैसे समझेंगे। इसीलिए संस्कृत पर विवाद नहीं होना चाहिए। जो संत महात्मा है, उन्हें विशेष करके संस्कृत को पढ़ना, बोलना, लिखना, समझना आना चाहिए।
वैदिक परंपरा के प्रसिद्ध विद्वान कुमारिल भट्ट
कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य से पहले विद्वान नहीं थे। लेकिन बिल्कुल ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि आदि शंकराचार्य से पहले भी विद्वान थे, जिनका नाम कुमारिल भट्ट था। वह कुमारिल भट्ट जिन्होंने वैदिक परंपरा संस्कृति को स्थापित करने के लिए कठोर परिश्रम किए। कुमारिल भट्ट एक बार वाराणसी के गलियों से गुजर रहे थे। वहीं काशी नरेश की पुत्री रो रही थी। कुमारिल भट्ट ने काशी नरेश की पुत्री से पूछा बहन क्यों रो रही हो।
उन्होंने कहा अब वैदिक परंपरा को आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं है। कैसे समाज में धर्म, संस्कार, संस्कृति को व्यवस्थित किया जा सकेगा, उसके लिए कौन प्रयास करेगा। वही कुमारिल भट्ट बौद्ध धर्म के लोगों से शिक्षा प्राप्त करके उन्हीं लोगों से शास्त्रार्थ करके हरा दिए। जिसके बाद कुमारिल भट्ट बहुत बड़े विद्वान हुए। वहीं आगे चलकर उन्हें मन में अफसोस हुआ कि हम जिन गुरुओं से शिक्षा प्राप्त किए, उन्हीं को हरा करके अच्छा नहीं किए।
संत महात्मा का संस्कृत जानना मौलिक धर्म है
वहीं प्रयागराज में पहुंचकर के अपने शरीर को त्याग करने वाले थे। इधर केरल के जो पहले आदि शंकराचार्य हुए थे। वह भी अपने आप को बहुत बड़े विद्वान मानते थे। वह सबसे बड़े विद्वान को ढूंढ रहे थे कि उनसे हम शास्त्रार्थ करके उनको पराजित करेंगे। वहीं आदि शंकराचार्य प्रयागराज पहुंचे। कुमारिल भट्ट से शास्त्रार्थ करने के लिए कहा, लेकिन कुमारिल भट्ट ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि हमारा एक शिष्य बिहार के शाहाबाद जिले में रहता है, जिनका नाम मंडन मिश्र है। उन्हीं से जाकर के आप शास्त्रार्थ कीजिए।
वहीं आदि शंकराचार्य मंडन मिश्र के गांव पर पहुंचे। उन्होंने संस्कृत में वाक्य बोलकर कुछ महिलाओं से मंडन मिश्र का घर पूछा। महिलाओं ने भी संस्कृत को समझ करके संस्कृत में ही जवाब दिया। कहा जाता है कि पहले भी महिलाएं शिक्षित होती थी जो संस्कृत की भी ज्ञानी होती थी। महिलाएं आज ही शिक्षित नहीं है।
शंकराचार्य और मंडन मिश्र का शास्त्रार्थ
वही आदि शंकराचार्य मंडन मिश्र के घर पर पहुंचे। आपस में दोनों लोगों का शास्त्रार्थ हुआ। जिसमें मंडन मिश्र पराजित हो गए। वहीं उनकी पत्नी ने कहा महाराज पति और पत्नी मिलकर के गृहस्थ आश्रम में चलाते हैं। हम गृहस्थ आश्रम को हैं। पत्नी पति का आधा अंग होती है। इसीलिए अभी तक आपने मेरे आधा अंग को हराया है। मतलब पति को हराया है। अभी पूरी तरीके से आपने नहीं हराया है। आप हमसे शास्त्रार्थ कीजिए। वही आदि शंकराचार्य जब मंडन मिश्र की पत्नी से सवाल जवाब करने लगे। तब मंडन मिश्र की पत्नी ने आदि शंकराचार्य को हरा दिया।
क्योंकि आदि शंकराचार्य बाल ब्रह्मचारी थे। मंडन मिश्र की पत्नी ने जो सवाल पूछा उसके बारे में उनके पास अनुभव नहीं था। उन्होंने कहा हम आपके सवालों का जवाब देने के लिए कुछ समय चाहते हैं। ऐसे संस्कृत के बड़े-बड़े विद्वान केवल पुरुष ही नहीं बल्कि स्त्रियां भी होती थी। इसलिए संस्कृत का ज्ञान विशेष करके जो अपने आप को संत महात्मा मानते हैं उनको तो जरूर रखना चाहिए।
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चंद्र वंश का प्रथम राजा पुरुरवा हुए
श्रीमद् भागवत कथा अंतर्गत भगवान श्री कृष्ण जी जिस वंश में जन्म लिए उनके वंश का नाम चंद्रवंशी था। चंद्रवंशी का सबसे पहले चंद्रमा के पुत्र राजा पुरुरवा थे। राजा पुरुरवा इतने प्रतापी और सुंदर राजा थे कि उनका देवलोक में भी चर्चा होता था। एक बार स्वर्ग की सबसे सुंदर अप्सरा उर्वशी ने राजा पुरुरवा के पास जाकर उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा, और साथ ही शर्त भी रखा। राजा पुरुरवा विवाह के लिए मान गए।
उर्वशी का शर्त था कि मैं जब भी आपके साथ वंश विस्तार के मर्यादा में रहूं तभी आपको वस्त्रा अभाव में देखूं। उसके अलावा मैं आपको अगर कभी वस्त्र अभाव में देखूंगी तो मैं आपका त्याग दूंगी। दूसरा शर्त था कि मेरे पास एक भेड़ का बच्चा है, वह बच्चा कभी गुम नहीं होना चाहिए। अगर गुम हो गया तो मैं आपको त्याग दूंगी। उर्वशी के इस शर्त को राजा पुरुरवा मान गए। उर्वशी और राजा पुरुरवा से कई संतान हुए। जिनमें आयु, श्रुतायु, शतायु, रय, विजय और जय नाम था।
एक बार देवराज इंद्र उर्वशी को ढूंढते हुए पृथ्वी लोक पर आए। देवराज इंद्र ने उर्वशी के भेड़ के बच्चे को देखा तो उसे उठा ले गए। भेड़ के बच्चे का आवाज सुनकर राजा पुरुरवा सोए हुए थे, वह अचानक उठकर देखने चले गए। उस समय वह वस्त्र अभाव में थे। उसी समय भेड़ का बच्चा का आवाज सुनकर उर्वशी भी आ गई। जब उर्वशी ने पुरुरवा को वस्त्र अभाव में देखा, तब उसी समय राजा पुरुरवा का त्याग करके पुन: स्वर्ग लोक चली गई।
चंद्र वंश का वंश परंपरा
जिसके बाद राजा पुरुरवा उर्वशी के शोक में उदास रहने लगे। जिसके बाद पुरुरवा के बड़े पुत्र आयु राजा हुए। उनके वंश परंपरा में आगे चलकर जाह्नू ऋषि हुए जो की बहुत ही प्रतापी थे। जह्नू ऋषि के वंश परंपरा में आगे चलकर राजा कुषामु हुए। इन्हीं के वंश परंपरा में राजा गादी हुए जो की बहुत ही प्रतापी और पराक्रमी में राजा हुए। यही गादी राजा के पुत्र विश्वामित्र मुनि थे।
फिर इसी वंश परंपरा में परशुराम जी का भी जन्म हुआ। फिर आगे सहस्त्रार्जुन राजा का भी चंद्र वंश में ही जन्म हुआ। पुरुरवा के ही वंश परंपरा में आगे चलकर एक राजा हुए उग्यासव। उनकी पत्नी का नाम मदालसा था। राजमाता मदरसा ने अपने पुत्र अलख को राजनीति, धर्म नीति, समाज नीति के साथ साथ अनेक नीति का उपदेश दिया। जिन्होंने नीति का 6 उपदेश दिया। फिर इस वंश परंपरा में आगे नहुष राजा हुए, उनके आगे ययाति हुए। जिनसे राजा यदु हुए। इन्हीं यदु के नाम पर भगवान श्री कृष्ण के वंश को यदुवंशी नाम से जाना गया। इसी चंद्रवंश में राजा भरत हुए, भारद्वाज ऋषि हुए और अनेकों प्रतापी राजा हुए।

रवि शंकर तिवारी एक आईटी प्रोफेशनल हैं। जिन्होंने अपनी शिक्षा इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी स्ट्रीम से प्राप्त किए हैं। रवि शंकर तिवारी ने डॉ एपीजे अब्दुल कलाम टेक्निकल यूनिवर्सिटी लखनऊ से एमबीए की डिग्री प्राप्त किया हैं।