श्री लक्ष्मी नारायण महायज्ञ की जल यात्रा 1 अक्टूबर को होगी – चातुर्मास्य व्रत स्थल परमानपुर अगिआंव बाजार पीरो आरा भोजपुर बिहार भारत में होने वाले श्री लक्ष्मी नारायण महायज्ञ के लिए बनाया गया भव्य दिव्य अलौकिक यज्ञशाला अपने आप में अविस्मरणीय है। श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज के मंगलानुशासन में पिछले लगभग 4 महीने से चल रहे चातुर्मास्य व्रत के उपलक्ष्य में श्री लक्ष्मी नारायण महायज्ञ का आयोजन 1 अक्टूबर से 7 अक्टूबर तक सुनिश्चित हैं।
यज्ञ का जलभरी दिन बुधवार 1 अक्टूबर को सुनिश्चित है जो भी लोग भारतीय संस्कृति वैदिक परंपरा में श्रद्धा रखते हैं, वे सभी लोग स्त्री पुरुष बालक बालिकाएं जल यात्रा में शामिल हो सकते हैं। परमानपुर चातुर्मास्य व्रत स्थल से लगभग सुबह 10:00 बजे पूरे विधि विधान से पूजा के बाद बहरी महादेव के लिए जल यात्रा निकलेगी।
श्री लक्ष्मी नारायण महायज्ञ की जल यात्रा 1 अक्टूबर को होगी
जो भी लोग जल यात्रा में शामिल होना चाहते हैं वे नया वस्त्र या पुराना वस्त्र जो शुद्ध हो पहन करके अपने कलश की व्यवस्था स्वयं करके परमानपुर चातुर्मास्य व्रत स्थल प्रवचन पंडाल में सुबह 10:00 बजे जल यात्रा के लिए सादर आमंत्रित हैं। सभी लोग अपने-अपने घर से सात्विक शुद्ध आहार भोजन करके जरूर आए।
श्री महालक्ष्मी नारायण यज्ञ में 1 अक्टूबर से 7 अक्टूबर तक श्रीमद् भागवत, श्रीमद् भागवत गीता, बाल्मीकि रामायण एवं श्री रामचरितमानस की कथा संकल्प लेकर के सुबह 9:00 बजे से श्रवण कर सकते हैं। क्योंकि ऐसा दिव्य अवसर बार-बार नहीं मिलता है। संकल्प के साथ कथा श्रवण करने का बहुत ही विशेष महत्व बताया गया है। जो भी लोग नियमित रूप से कथा श्रवण करना चाहते हैं, वह भी 1 अक्टूबर को प्रवचन पंडाल में रक्षा सूत्र बंधवा करके संकल्प लेकर के शुद्ध सात्विक भोजन करके नियमित रूप से कथा श्रवण कर सकेंगे।

भारत के महान संत, महात्मा, दिव्य महापुरुष, विद्वान के द्वारा कथा श्रवण करने का अवसर बार-बार नहीं मिलता है। इसीलिए इस पावन अवसर पर भारत के अलग-अलग क्षेत्र से बड़े-बड़े धर्माचार्य विद्वानों के द्वारा कथा श्रवण लाभ प्राप्त कर पाएंगे। इसलिए जो भी धर्म अनुरागी सज्जन इस अवसर का लाभ उठाना चाहते हैं, वे 1 से 7 अक्टूबर तक सात्विक भोजन करके पूरी तन्मयता के साथ कथा श्रवण का लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
अखिल अंतरराष्ट्रीय धर्म सम्मेलन का भी आयोजन
श्री लक्ष्मी नारायण महायज्ञ के पूर्णाहुति के अवसर पर 7 अक्टूबर को अखिल अंतरराष्ट्रीय धर्म सम्मेलन का भी आयोजन सुनिश्चित है। धर्म सम्मेलन में भारत के अलग-अलग राज्यों से महान संत, महात्मा, दिव्य महापुरुष का एक साथ दर्शन लाभ प्राप्त कर पाएंगे।
इस यज्ञ के पावन अवसर पर 7 अक्टूबर को रात्रि 7:00 बजे से 10:00 बजे रात्रि तक भजन संध्या का आयोजन किया जाएगा। इस अवसर पर भी प्रतिष्ठित भजन गायको द्वारा भजन सुनने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं। उपरोक्त यह सभी कार्यक्रम श्री त्रिदंडी स्वामी राजकीय डिग्री महाविद्यालय परमानंद नगर परमानपुर अगिआंव बाजार पीरो भोजपुर आरा बिहार के प्रांगण के पश्चिम तरफ स्थल पर किया जा रहा है।
बिहार के बिना भगवान श्री कृष्ण का नाम भी अधूरा
श्रीमद् भागवत कथा अंतर्गत गंगा के पावन तट पर राजा परीक्षित शुकदेव जी से मथुरा में कंस वध के बाद आगे की कथा श्रवण कर रहे हैं। शुकदेव जी कहते हैं कि राजा परीक्षित कंस का वध करने के बाद कृष्ण जी मथुरा में निवास कर रहे हैं। इधर जब जरासंध को कंस के मरने की खबर मिलती है, तब वह क्रोधित हो जाता है। जरासंध कंस का रिश्ते में ससुर लगता था। इधर भगवान श्री कृष्ण अपने चाचा अक्रूर जी को हस्तिनापुर समाचार लेने के लिए भेजते हैं। अक्रूर जी हस्तिनापुर जाते हैं, वहां की सारी स्थिति को देखकर के वापस मथुरा लौट आते हैं।
हस्तिनापुर में पांडवों के साथ अत्याचार हो रहा था। पूरी कहानी को अक्रूर जी श्री कृष्ण जी को बताते हैं। इधर मगध का राजा जरासंध मथुरा पर बार-बार चढ़ाई कर रहा था। मगध क्षेत्र जो बिहार में मौजूद है। वहीं बिहार एक ऐसा नाम है जो बिहार भगवान श्री कृष्ण के नाम में भी मौजूद है। बिहार के बिना भगवान श्री राम का नाम भी अधूरा लगता हैं। भगवान श्री कृष्ण के नाम भी अलग-अलग हैं। जैसे बांके बिहारी, बृज बिहारी, रास बिहारी, वृंदावन बिहारी इत्यादि नाम में बिहारी शब्द जुड़ता है। इसीलिए जब तक बिहार और बिहारी भगवान श्री कृष्ण के नाम में भी नहीं लगता है, तो अधूरा रहता है।
जरासंध 17 बार मथुरा पर चढ़ाई किया था
इसी प्रकार से सामान्य जीवन में भी बिहार का बहुत ही ज्यादा विशेष महत्व है। बिहार और बिहार के रहने वाले लोग वैसे भी अद्भुत कला से भरे हुए हैं। जो दुनिया में अपना जहां रहते हैं, वहां पर एक अलग विशेष पहचान रखते हैं। ऐसे मगध क्षेत्र के राजा जरासंध 17 बार मथुरा पर चढ़ाई किया था। लेकिन 17 बार उसे भगवान श्री कृष्ण से हारना पड़ा था।
लेकिन बिहारी भी ऐसे होते हैं कि चाहे वह युद्ध में हार भी जाएं, फिर भी अपनी हार नहीं मानते हैं। अंतिम सांस तक लड़ते हैं। इसी प्रकार से 18वीं बार जरासंध मथुरा पर चढ़ाई करने के लिए तैयारी कर रहा था। इधर एक राजा कालयवन को वरदान प्राप्त था कि वह यदुवंशियों से नहीं मरेगा। वही कालयवन मथुरा पर युद्ध करने के लिए आक्रमण करना चाहता था। भगवान श्री कृष्णा उसे भगाते-भगाते एक पर्वत के गुफा में लेकर पहुंचे। जहां पर राजा मुचकुंद सोए हुए थे। उन राजा मुचकुंद को ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त था कि जो भी उनको जगाएगा वह जलकर भस्म हो जाएगा। वही भगवान श्री कृष्ण पहुंचकर के अपना पीतांबर उस राजा के ऊपर डाल दिए।
कालयवन वध
जिसके बाद स्वयं वह जाकर उस गुफा में दूसरे जगह पर छुप गए। कालयवन श्री कृष्ण को ढूंढते ढूंढते उस गुफा में पहुंचा। वहां पहुंचने के बाद देखता है कि श्री कृष्ण का पीतांबर डाला हुआ है और वह सोए हुए हैं। जबकि वास्तव में वह राजा मुचकुंद थे। जिनके ऊपर पीतांबर भगवान श्री कृष्ण डाल दिए थे। वही कालयवन पीतांबर को हटाता है और जोर से पैरों से मार कर के उस राजा को जगाता है। राजा जैसे ही जागते हैं, उनकी आंख खुलने के बाद वह कालयवन जल करके भस्म हो जाता है। जिसके बाद भगवान श्री कृष्ण वहां पर आते हैं। राजा भगवान श्री कृष्ण को देखकर के प्रसन्न हो जाते हैं। वही भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि वरदान मांगो। जिसके बाद राजा मुचकुंद के द्वारा भक्ति का वरदान मांगा जाता है।
श्री कृष्ण जी भक्ति का वरदान देकर के वहां से मथुरा वापस लौट आते हैं। इधर जरासंध 18वीं बार युद्ध में जीतने के लिए ब्राह्मणों से कह रहा था, कि ब्राह्मण देवता ऐसा पूजा कीजिए कि इस बार श्री कृष्णा या तो हार जाए या भाग जाए या खत्म हो जाए। जरासंध आपने पुरोहित से कहता है, कि यदि आप लोग अच्छे से पूजा करते हैं और मेरा कार्य सफल हो जाता है तो हम आप लोगों को मुंह मांगा दक्षिणा देंगे। यदि हम हार जाते हैं तो आप लोगों का सिर काट देंगे। इधर भगवान श्री कृष्णा सोच रहे हैं कि यदि इस बार हम जरासंध को हराते हैं तो ब्राह्मणों की हत्या हो जाएगी। भगवान सर्वदा ब्राह्मण और गाय की रक्षा करते हैं।
द्वारिका पुरी का निर्माण
वहीं भगवान श्री कृष्णा विश्वकर्मा जी को आदेश दिए कि मेरे लिए आप एक सुंदर नगर का निर्माण कीजिए। वहीं विश्वकर्मा जी के द्वारा समुद्र के बीच में द्वारिका पुरी का निर्माण किया गया। भगवान श्री कृष्ण मथुरा वासियों के साथ योगमाया के माध्यम से सभी लोगों को लेकर के रात में द्वारिका पुरी चले गए। जब सभी लोग रात में सोए थे, उसी समय सभी लोगों को मथुरा भगवान श्री कृष्णा लेकर के चले आए। जिस प्रकार से किसी व्यक्ति को बेहोश करके ऑपरेशन किया जाता है। उस व्यक्ति को एक रूम से दूसरे रूम में लेकर जाया जाता है। लेकिन उसको पता नहीं चलता है। उसी प्रकार से भगवान श्री कृष्णा योगमाया के द्वारा पूरे संपूर्ण मथुरा वासियों को द्वारिका पुरी लेकर के चले गए।
वहां पर सभी लोग अलग-अलग कमरे में विश्राम कर रहे थे। सुबह में जब सभी लोगों का नींद खुला, उसके बाद सभी लोग अपना-अपना घर ढूंढने लगे। बाहर निकालने के लिए द्वार खोज रहे थे। उन लोगों को द्वार नहीं मिल रहा था। द्वारा खोजने के कारण ही उस नए नगरी का नाम द्वारिका पुरी पड़ा।
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श्री कृष्ण का नाम रड़छोड़ पड़ा
इधर बलराम जी भगवान श्री कृष्णा से कह रहे थे। कृष्ण हम लोग मथुरा छोड़कर के आ गए। हम लोगों को भगोड़ा कहा जाएगा। रड़छोड़ कहा जाएगा। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं दाउ भैया मेरा नाम तो पहले से ही माखन चोर, ग्वाले गोपियों के प्रेम चुराने वाले के नाम से लोग जानते हैं तो एक और नाम रड़छोड़ भी पड़ जाएगा तो उससे क्या होने वाला है।
इधर जरासंध मथुरा पर आक्रमण करता है। जिसके बाद उसे पता चलता है कि श्री कृष्ण मथुरा छोड़कर भाग गए। जरासंध बहुत प्रसन्न हुआ, ब्राह्मणों से कहता है, आप लोगों का पूजा सफल हुआ। ब्राह्मणों को खूब दान दक्षिणा देता है तथा उसी समय से ब्राह्मणों के प्रति उसकी बहुत ही ज्यादा स्नेह भी बढ़ जाता है।
भगवान श्री कृष्ण द्वारकापुरी आते हैं तो उनका नाम भी बदल जाता है। उनकी प्रतिष्ठा भी बदल जाती है। अब उनके नाम को बहुत ही आदर पूर्वक लिया जाता है। क्योंकि द्वारका के वह राजा बन गए थे। द्वारकाधीश के नाम से जाने जाते थे। अब उनके नाम के साथ कई और भी शब्द जुड़ गए थे। उनका नाम लोग बहुत ही आदर सम्मान के साथ लेते थे। भगवान श्री कृष्णा मन ही मन विचार कर रहे थे, कि अब राजा भी बन गए हैं, विवाह हो जाता तो बहुत अच्छा होता।
रुक्मणी का पत्र कृष्ण के नाम
वहीं इधर विदर्भ के राजा भिस्मक की पुत्री रुक्मणी का विवाह शिशुपाल के साथ उसके भाई रुक्मी ने तय किया था। जबकि रुक्मणी के माता-पिता को यह विवाह पसंद नहीं था। लेकिन रुक्मी जो भगवान श्री कृष्ण से वैर करता था, क्योंकि रुक्मी कंस का मित्र था। वह शिशुपाल, दुर्योधन, कंस जैसे लोगों से अपना मैत्री भाव रखता था। जब भगवान श्री कृष्ण ने कंस का वध कर दिया, उसके बाद से ही रुक्मी कृष्ण का विरोधी हो गया था।
वहीं रुक्मणी जी इस विवाह से खुश नहीं थी। वह मन ही मन सोच रही थी कि हम अपने बात किससे कहें। वही एक दिन अपने पुरोहित से बुलाकर के कहती हैं कि ब्राह्मण देवता हम एक पत्र आपको दे रहे हैं, इस पत्र को आप श्री कृष्णा तक जरूर पहुंचा दीजिए। वहीं विदर्भ देश के पुरोहित भगवान श्री कृष्ण के पास दूत बनकर आते हैं। पंडित जी भगवान श्री कृष्ण से कहते हैं कि महाराज विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मणी ने आपके लिए एक पत्र भेजा है। श्री कृष्ण जी कहते हैं आप पढ़ कर सुनाइए।
पंडित जी कहते हैं कि नहीं महाराज यह पत्र गोपनीय है। इसीलिए इसे आप अकेले में पढ़िए। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं मेरे लिए गोपनीय कुछ नहीं होता है। इसलिए आप इस पत्र को यहीं पर पढ़िए। वहीं उस पत्र को पढ़ रहे हैं, जिसमें लिखा हुआ है कि द्वारकाधीश को प्रणाम, मैं विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मणी आपसे विवाह करने की कामना रखती हूं। जबकि मेरे भाई रुक्मी मेरा विवाह शिशुपाल से तय कर दिए है।
रुक्मणी और श्री कृष्ण का विवाह
मेरे माता-पिता भी इस विवाह से खुश नहीं है। वह भी चाहते हैं कि मेरा विवाह श्री कृष्ण के साथ हो। इसलिए हे द्वारकाधीश मैं देवी पूजन करने के लिए अपने गांव के मंदिर में जाउंगी। वहीं पर आकर के आप मुझे अपने साथ लेकर चलिए। वही भगवान श्री कृष्ण बिना किसी को बताए, पंडित जी को रथ पर बैठा करके उस मंदिर के पास पहुंचते हैं। जहां पर रुक्मणी जी पूजा करने के लिए आई थी। वहां पर चारों तरफ काफी संख्या में पहरेदार पहरा दे रहे थे। पंडित जी भगवान श्री कृष्ण को मंदिर ले जाते हैं। रुक्मणी जी से कहते हैं, बेटी यही श्री कृष्णा है। वही रुक्मणी जी कृष्ण जी के साथ वहां से रथ पर बैठकर निकल जाती हैं।
जब भगवान श्री कृष्ण रुक्मणी को लेकर के वहां से चलते हैं, उस समय सारे पहरेदार निद्रा में सो जाते हैं। उसके पहले भगवान श्री कृष्ण को देखकर सभी पहरेदार उनका गुणगान कर रहे थे। कैसे आदमी है इनका मुख कितना सुंदर है, होठ कितना चमकीला है। उनके ललाट पर एक अजब का चमक दिखाई पड़ रहा है। प्रशंसा करते-करते सभी पहरेदार सो जाते हैं। जब उनकी निद्रा खुलती है तो वह देखते हैं कि रुक्मणी जी वहां से कृष्ण के साथ रथ पर आगे जा रही है। वही सब लोग पीछा करने लगते हैं।
इस बात की जानकारी रुक्मणी जी के भाई रुक्मी को होती हैं। इधर कृष्ण जी के बड़े भैया बलराम जी को भी इस बात की जानकारी होती है कि कृष्णा रुक्मणी के घर उनको लेने के लिए गए हैं। वह भी श्री कृष्ण की सहायता करने के लिए द्वारकापुरी से निकल जाते हैं। इधर रुक्मी भगवान श्री कृष्ण को अपनी तीखी बातों से युद्ध के लिए ललकारता है। कहता है कृष्णा यदि तुम भगोड़ा नहीं हो तो यहीं पर रुक जाओगे।
श्री कृष्ण और रुक्मी का युद्ध
इस बात को सुनकर के कृष्ण जी काफी क्रोधित होते हैं वहीं पर अपने रथ को रोकते हैं। जिसके बाद रुक्मणी के भाई रुक्मी को रथ के पहिए में बांध करके घसीटते हुए रथ को आगे बढ़ा रहे थे। इधर बलराम जी आते हैं इस घटना को देखकर के भगवान श्री कृष्ण से कहते हैं, कि कृष्णा यह आप अच्छा नहीं कर रहे हैं। रुक्मणी के भाई को आपको इस तरीके से नहीं बांधना चाहिए।
वह आपका रिश्ते में साला है और एक बहन के सामने उसके भाई को इस प्रकार से प्रताड़ित करना गलत है। कई प्रकार से कृष्ण जी को एक प्रकार से डांटते हैं। बलराम जी कहते हैं कृष्णा रुक्मी को आप रथ के पहिए से मुक्त कीजिए। वही कृष्ण भगवान रथ के पहिए से छोड़ देते हैं। वहां से कृष्ण जी रुक्मणी जी को लेकर के द्वारिका आते हैं। जिसके बाद द्वारिका में भगवान श्री कृष्णा और रुक्मणी का वैदिक परंपरा के अनुसार विवाह होता है। जिसके बाद दोनों लोग द्वारका में वास कर रहे हैं। भगवान श्री कृष्णा मन ही मन सोचते हैं कि हम छोटे भाई हैं, मेरा विवाह हो गया और मेरे बड़े भैया बलराम जी का विवाह नहीं हुआ है। इसलिए उनका भी विवाह होना चाहिए।
वही विदर्भ राज्य के राजा भीष्मक के मित्र रेवतक की पुत्री रेवती से विवाह बलराम जी का होता है। बलराम जी के विवाह के बाद वह भी रेवती के साथ द्वारिका में वास कर रहे हैं। कृष्ण और बलराम जी का विवाह हो चुका है। अब आगे भगवान श्री कृष्ण एवं बलराम जी किस प्रकार से अपना कार्यभार और व्यवस्था को आगे संभालते हैं, उसकी शेष चर्चा अगले दिन होगी। जय श्रीमन नारायण।

रवि शंकर तिवारी एक आईटी प्रोफेशनल हैं। जिन्होंने अपनी शिक्षा इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी स्ट्रीम से प्राप्त किए हैं। रवि शंकर तिवारी ने डॉ एपीजे अब्दुल कलाम टेक्निकल यूनिवर्सिटी लखनऊ से एमबीए की डिग्री प्राप्त किया हैं।